गुरु कवियों ने शायद
यही मान लिया था
रस हीन शब्द कविता नहीं,
जान लिया था
और कविता में रस-फोट
करने का ठान लिया था
कभी रसिया चरित्र का
सौद्देश्य निर्माण
कर
तो कभी राधा-कृष्ण रस-केलि
का
जीवंत बखान कर
रची जाती रही कविता
गीत-गोविन्द या रसमंजरी
बहती ही रही
रस-लहरी
क्या भक्तिकाल, क्या
रीतिकाल
क्या जयदेव, क्या
रसलीन
शब्द हुए नहीं रास-रक्तिहीन
जो राजाओं के स्वर्ण
मोहरों ने
कलम में भर दी स्याही
रस की
होता रहा उनसे सतत रस-स्राव
तृप्त होता रहा समस्त
दरबार
कवियों को मिलता रहा
आहार
रसहीनता कहाँ जब स्त्री
देह का
सामने था नवला, चंचला
रूप
आद्योत उसी से था कवि
मन-मंकुर
वहीँ रसथल में प्रस्फुटित
हुआ अंकुर
उगे सघन पेड़, मिली
शीतल छांह
विचरती मोहिनी से मिली
गलबांह
उथल पड़ा वहीँ रस-सागर
चलता रहा रोम-रोम रस मंथन
इसीलिए कभी
अग्निपुराण
तो कभी ब्रम्हवैवर्त
में
कलम को रुकना ही पड़ता
था
नगर की स्त्रियों का असह्य
यौवन भार
सबको कहना ही पड़ता था
उसी रस-चाशनी से
पुराण
करते रहे जनकल्याण
चलता रहा रस के कुँए
पर
मधुर काव्य सृजन
मुग्धा रस-घट भरती
रही
उसके वक्र-कटि पर भरा
घड़ा
सरेराह छलकता रहा
कवियों की प्यास
बुझती रही
कविता की निर्बाध
रसमय यात्रा
सदियों से चलती ही
रही
सदियों की यात्रा के
बाद
परिवर्तित रूप में भी
वही हाल है
किसी मुदिता की
मुख-चांदनी पर
सारे शब्द निढाल हैं
ख़याल-ऐ-यार है
तो कविता में बहार है
वो हंस दे मन में
तो शब्द मुस्कुराएं
और रूठ जाएँ
तो शब्द मुरझाएं
और यादें रसीले शब्द
बन जाएँ
तो पूरा चारबाग झूम
जाए
लेकिन पुराने उपमाओं,
अलंकारों में
विरह-राग में, पायल
की झनकारों में
कब तक कैद रहे कविता?
कब तक उन्हीं रसों से
बने
आसव और अरिष्ट
क्यों ना बहे
कविताओं में नूतन
समीर
क्यों ना मिले
कविताओं में
सिर्फ निर्मल नीर!
उठे भूख की आवाज़ शेष
उभरे ह्रदय में
अंतर्निहित क्लेश
रांझे की पीर का बहुत
हुआ बखान
आओ कविताओं में लायें
विज्ञान
लौटे स्त्री-देह में,
लेकिन गर्भ में
करें अपना जीवन संधान
सोचें डीएनऐ की,
कोशिकाओं की
विज्ञान के असीमित
संभावनाओं की
धमनियों की, मस्तिष्क
खंड की
गर्भाशय से चिपके
मेरुदंड की
भ्रूण की, उसमे ह्रदय
स्पंदन की
नव जीवन के अंकुरण की
जननी के रक्षा आवरण
की
उसके छातियों से
निकले प्रोटीन की
आनुवांशिकी की, जीन
की
लैकटोज की, फ्रक्टोज
की
ग्लूकोज और गैलेक्टोज
की
या कूच करें अंतरिक्ष
में
तारों से रू-ब-रू हो
लें
चाँद के सतह का
विश्लेषण करें
निर्वात की बात करें
और खो जाएँ महाशून्य
में
सोचें पृथ्वी की
कहानी
कैसे कहें कविता की
जुबानी
यह जानकर भी
कि पृथ्वी, निर्वात,
या शून्य में
कविता का रस सूख जाता
है
नाभि से खिसक नाभिक वर्णन
से
कविता का रस सूख जाता
है
कवि-मन पर लगाम लगाने
से
कविता का रस सूख जाता
है
मगर ग़ालिब की अमर शायरी
के लिए
शकील के शीरीं बोल के
लिए
या दिनकर की आत्मा की
आवाज़ सुनकर
रस को दें थोड़ा
त्राण
आओ कविजन! रस से हटकर
कविता में हो कुछ
नव-निर्माण
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १ जुलाई २०१३)
चारबाग - लखनऊ का
रेलवे स्टेशन ( वहाँ पर सन २००२ में सुने काव्य की स्मृति )