कुछ बोलो तुम
इस मौन को त्यजकर
अपने मुख को खोलो तुम
कुछ बोलो तुम
डरो मत तुम
गर कथ्य विवादित हो
ठहरो मत तुम
गर वाद पराजित हो
हर युग में होते आये हैं
मुंह पर जाबी देने वाले
तू छोड़ सच पर, बोल अभी
जब होना हो वो साबित हो
अंतर जिधर जाने कहे
उस मार्ग के अध्वग हो लो तुम
कुछ बोलो तुम
हाँ माना मैंने
चक्षु दोष से बाधित हो
हाँ माना मैंने
समयचक्र से शापित हो
पर ध्यान रहे वो वनित हर्ष
जानता नहीं शापित-बाधित
वो नहीं जानेगा क्यों तुम
प्रीणित या अवसादित हो
कर आज मनन
सच के सलीब को ढो लो तुम
कुछ बोलो तुम
हों शब्द तुम्हारे स्नेह तिमित
या ज्वाला से प्लावित हो
उनको आने दो यथारूप
झूठ से ना वो शासित हो
हो निघ्न निकृति सहते सहते
उर-ज्वाला में तपते तपते
जीवन मरण बन जाएगा
ग्लानि से सर जब नामित हो
चाहे हो जाओ एकाकी
पर संग हवा न डोलो तुम
कुछ बोलो तुम
(निहार रंजन, सेंट्रल, १८ मई २०१३)