Monday, May 5, 2014

काका के लिए

मैं जनता हूँ, अनिर्दिष्ट पथों में ही आत्मा सृत्वर है 
मैं जानता हूँ, भव-कूप का अंतहीन स्तर है
मैं जानता हूँ, कितना निर्दय काल का कर है
मैं जानता हूँ, भूतल से नभ के बीच कितने यमित स्वर हैं
मैं जानता हूँ, कितना निर्वचनीय यह आत्मिक समर है
और जब अपने यमित करों से आत्मिक स्पर्श के लिए
विवश हो चतुर्दिक भरमाता हूँ
शायद आपका ही हाथ अपने माथे पर पाता हूँ

मैं जानता हूँ, आपकी और अपनी सीमाएं
मैं जानता हूँ, मुक्ति और बंधन की परिभाषाएं
मैं जानता हूँ, चेतनता की विवशताएँ
मैं जानता हूँ, इस लोक और उस लोक की बाधाएं
मैं जानता हूँ, इस उद्दंड ग्रहिल उत्कंठा की संभावनाएं
और इसी सीमा, बंधन, चेतन, लोक, उत्कंठा के बीच जब  
श्वासों के आरोह-अवरोह में आतत, खो जाता हूँ
अपने मन में आपका ही विस्तार पाता हूँ

मैं जानता हूँ, किसी चालक के सम्मुख विनत यह संसृति है   
मैं जानता हूँ, किसी निर्देश से नियोजित आपकी निभृति है
मैं जानता हूँ, मेरे शून्य में गुंजायमान आपकी ही आवृति है
मैं जानता हूँ, जो क्लेश है, इस दूरी की भावुक स्वीकृति है
मैं जानता हूँ,  जो शेष है, यही संचित स्मृति है
और संसृति की इसी स्वीकृत गति को स्वीकार कर भी
जाने क्यों उद्विग्न, उद्वेलित रह जाता हूँ
सोचा आज कुछ कह जाता हूँ


आज मेरे चाचाजी की २३वीं पुण्यतिथि है. उनकी स्मृति में लिखे इन्हीं शब्दों के साथ आज के लिए विदा. कल से कलम को फिर से गति मिलेगी.