बहुत शान्ति है इस खटिये में
जिसमे धंस कर, धंस जाता हूँ अपने आप में
बहुत दूर, बहुत अंदर, आत्मिक-आलाप में
जिसमे न बल्ब है, न रौशनी है
न शोर है, न मांग है, न आपूर्ति है
ना विरोध है, ना स्वीकृति है
न स्वाप्तिक उपवन है, न अवचेतन है, न सच्ची जागृति है
है तो बस खाट के ये चार खूंटे
इनसे चिपटी हरे बांस की ये बत्तीयाँ
बत्तीयों में तनी यह मच्छरदानी
उसके ऊपर धेमरा बथान की नयी फूस का छत
और ये चार दीवारें टाट की
जिनसे गुजरती है कोसी की अलसायी यह आर्द्र हवा
कभी हिमालयी पवन की तरह
तो कभी तापगृह के वाष्प-कक्ष की तरह
और मैं मरा पड़ा सोचता हूँ
हिताची, कब आएगा यहाँ हितैषी बनकर?
इसी अभिलाषा के बीच देखता हूँ
टाट के यथार्थरूप को
जिसके फांको के बीच खड़ी है लालगंज वाली काकी
तुलसी को करती अर्पित जल-फूल
करती हुई अपनी शंकाओं को निर्मूल
सोचती मृत्यु बाद, वैतरणी न रहे अनिस्तीर्ण
जुड़ जाए, उसका यह ह्रदय विदीर्ण
लौट आये उसका लाल
जो साठ वर्षीय संसदीय घमासान के बाद भी
कर गया पलायन गाँव से
टेलीविजन के विज्ञापनों में देखी
सपनों की दुनिया देखने
टाट की इन दीवारों को,
कंक्रीट की दीवारों में परिवर्तित करने
भानस-घर, चिनबार को
‘मॉड्यूलर किचेन’ का रूप देने
और तभी विचिन्ता में डूब जाता हूँ मैं
कि ‘परमेष्टि’ की परिभाषा कितनी बदल गयी है
दो पीढ़ियों के बीच
बहुत बदल गयी है, बहुत बातें
इस झोपड़ी से उस संसद तक
पर बदली नहीं ठगी
उस लाल ने देश को ठगा
इस लाल ने लालगंज वाली काकी को
जो कर गया था प्रत्यागमन की बात
साल दो साल में, किसी भी हाल में
और जा फंसा है महानगर के नागरी व्यामोह में
खो गया है ज्यों किसी शिखर के आरोह में
या पिसती जिंदगी में ही देखता है मोक्ष
उस लाल का ठगा यह लाल
फिर गाँव क्या, शहर क्या ?
यही कुछ बातें है, देहाती बातें
जो खाट की शान्ति में मिलती है मुझे
और पार्श्व में द्वन्दरत पड़ोसियों के श्रीमुख से
देसी गालियों की अनाहूत वर्षा
जिसकी जड़ में
खुरखुर झा नहीं है
सेहेंता गोबरपथनी नहीं है
कोई लाल ही है
लालगंज वाली काकी नहीं
(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, १७ मई २०१४)